क्या फिर से बिहार राजनीति की प्रयोगशाला बनेगा?

 05 May 2020 ( न्यूज़ ब्यूरो )
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आजकल वैकल्पिक राजनीति की बहुत चर्चा है। राजनीति में जनसरोकार, समन्वय और शुचिता को प्राथमिकता देने पर बहस चल रही है। भारत का एक बड़ा वर्ग जाति, बिरादरी और धर्म के इर्द गिर्द चक्कर लगा रही भारतीय राजनीति से ऊब गया है और नए अन्दाज़ में सियासत के मानी मतलब लगा रहा है।

ऐसे लोगों का मानना है कि बिहार राजनीति की प्रयोगशाला रहा है तो क्या  बेहतर होता कि मुद्दों पर आधारित वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत आगामी बिहार विधान सभा चुनाव से किया जाए।

इस  मत के समर्थन में जे पी, लोहिया के नाम की रट लगाने वाले और  जार्ज फर्नांडिस, चन्द्रशेखर, मधुलिमय, राजनारायण, किशन पटनायक, कर्पूरी ठाकुर सरीखे समाजवादी योद्धाओं के शिष्य राष्ट्रीय रजधानी दिल्ली और पटना समेत कई स्थानों पर सक्रिय हैं।

पत्रकार, लेखक, प्रोफेसर और लाल फीताशाही से मुक्त होकर कुछ प्रशासनिक अधिकारी भी इस मुहिम में चिंतन करते पाये जा रहे हैं और सबकी पीडा एक ही है कि कैसे राजनीति में शुचिता आये ताकि भारतीय राजनीति को नया आयाम मिल सके।

इस संदर्भ में कई प्रकार की कोशिशें हो रही है। कोई छोटे-छोटे दलों का गठबंधन बनाकर आगामी बिहार विधान सभा चुनाव में सत्ता और विपक्ष  दोनों से बेहतर विकल्प देने की बात कह रहा है तो दूसरा, बुद्धिजीवी वर्ग एक नए दल का गठन कर जनसरोकार के मुद्दे पर सरकार की विफलताओं को गिनाकर एक नया विकल्प देने की तैयारी कर रहा है। लेकिन एक सोच ऐसी भी है जिसका दावा है कि कुछ प्रसिद्ध नेताओं का समूह मिलकर अपने में से एक प्रसिद्ध नाम तय कर उसकी अगुवाई में चुनाव  में जाए और एक नया विकल्प पेश करें।

इसी कड़ी में नेताओं के अलावा इसी मत के ज़मीनी कार्यकर्ताओं का मत उक्त सभी की राय से बिल्कुल भिन्न है। जो ये मानते है कि समाज के सभी  वर्गों को उचित भागीदारी और अवसर देकर जनता की मूल समस्याओं के समाधान के लिए ठोस योजना बनाकर जनमानस का समर्थन प्राप्त किया सकता है लेकिन शर्त ये है कि सब लोगों की सत्ता और शासन में भागीदारी सुनिश्चित हो।

ऐसे लोग ये मानते हैं कि समाज के अगड़े, पिछडे, अनुसूचित जाति एवं जनजाति और अल्पसंख्यक को संगठन, सत्ता और शासन में भगीदार बनाकर ही कोई बड़ी लाईन बनाई जा सकती है जिसमें कोई किसी के साथ नाइंसाफी नही कर सके। साथ ही किसी वर्ग विशेष का सत्ता पर वर्चस्व स्थापित न हो सके।

अब सवाल ये उठता है कि क्या उक्त सभी बिन्दु से साफ सुथरी राजनीति की शुरुआत हो सकेगी जो जन मानस की भलाई के लिए ठोस साबित हो सके?

क्या ऐसी किसी पहल से जातिवाद, परिवारवाद और उन्माद की बीमारी से निजात पाया जा सकता है?

युवा वर्ग जो नेताओं के दिशाहीन बयानों से और सत्ता पक्ष और विपक्ष के वार-पलटवार से तंग आ चुका है। क्या युवा वर्ग ऐसी किसी वैचारिक राजनीति के नाम पर गोलबन्द हो रहे नेताओं पर विश्वास कर पायेगा? या फिर युवा शक्ति ही नई मशाल लेकर राजनीति को बदलने पर विचार करेगी!

संपादन: परवेज़ अनवर
न्यूज़ डायरेक्टर और एडिटर- इन-चीफ, आई बी टी एन मीडिया नेटवर्क ग्रुप, नई दिल्ली  
लेखक: सादात अनवर
चन्द्रशेखर स्कूल आफ पॉलिटिक्स, नई दिल्ली

 

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