सत्ता के विरूद्ध उठने वाली सभी छोटी-बड़ी आवाज़ों को साथ लेकर सम्पूर्ण विपक्ष के निर्माण से ही सत्ता परिवर्तन संभव होगा।
सत्ता पक्ष की नीतियों से असहमति जताने वाले छोटे-बड़े सभी समूहों, संस्थाओं, राजनीतिक दलों और गैर राजनीतिक संगठनों को सामूहिक रूप से विपक्ष कहते हैं।
जब सरकार की नीतियां जन सरोकार पर केन्द्रित ना होकर सिर्फ जुमले बाजी, बयानबाज़ी और ड्रामेबाजी के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती दिखाई पड़ती हैं तो सरकार के विरुद्ध उठने वाली सभी आवाजों को मिलकर विपक्ष का नाम दिया जाता है।
मतलब सत्ता के विरूद्ध उठने वाली सभी छोटी-बडी आवाज़ों को निसंदेह विपक्ष कहा जाएगा।
बिहार की सत्ता पर विराजमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं जिनकी सरकार के सहयोगी भाजपा और लोजपा हैं। अर्थात जदयू, भाजपा और लोजपा की संयुक्त सरकार सत्तापक्ष और बाकी सभी विपक्षी हैं।
बिहार सरकार की नीतियों से असहमति जताने वाले राजनीतिक दलों में मुख्य रूप से शामिल हैं: राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी, भारतीय सब लोग पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), एम आई एम और बसपा।
साथ ही बड़ी संख्या में सामाजिक और गैर राजनीतिक संगठन भी सरकार की नीतियों से आहत होकर विरोध के स्वर बुलन्द कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त दर्जन भर ऐसे राजनीतिक दल भी विपक्षी ही कहलाएंगे जिनका वजूद बहुत नहीं है लेकिन उक्त पार्टी की अगुवाई पूर्व विधायक या पूर्व सांसद कर रहे हैं।
कई युवा पीढ़ी के लोगों ने राजनीतिक दलों में युवाओं की अनदेखी होता देखकर अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनाई है और वो सरकार के विरूद्ध युवाओं की अनदेखी के सवाल पर बिगुल फूंके हुए हैं। ऐसे लोग भी विपक्षी ही कहे जाएंगे।
लेकिन विपक्ष की इतनी बड़ी संख्या और सत्ता के विरूद्ध नाराजगी के बावजूद विपक्षी कमजोर दिखाई दे रहे हैं।
इसका कारण ये है कि विपक्ष एक उद्देश्य के लिए सरकार के विरुद्ध उठने वाली सभी छोटी-बड़ी आवाज़ों को मिलाकर सम्पूर्ण विपक्ष बनना नहीं चाहता।
मुख्य विपक्षी दल राजद और कांग्रेस एक-दूसरे को साथ लेकर चलना तो चाहते हैं लेकिन रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के द्वारा लीडरशिप के सवाल पर उनसे किनारे रहने या किनारे कर देने में ही अपनी बेहतरी समझते हैं। रालोसपा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के बयानों से विपक्षी एकता के बनते-बिगड़ते रिश्ते को गलत दिशा मिल जाती है।
जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) एक उभरता हुआ दल है जो लगातार सत्ता के विरूद्ध मुखर होकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराए हुए है लेकिन समय-समय पर मुख्य विपक्षी दलों की कार्य शैली पर प्रश्न चिन्ह लगाकर विपक्षी खेमे से अपने-आपको दूर कर लेता है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) जैसे वाम दल जो बिहार के किसी खास क्षेत्र में ही थोड़ा असर रखते हैं वो भी अपने-आपको विपक्षी खेमे में उचित भागीदारी नहीं मिलने के संकेत से चिंतित हैं।
वहीं पूर्व सांसद और पूर्व मंत्री द्वारा नव गठित भारतीय सब लोग पार्टी वर्तमान सत्ता के मुखिया की कार्य शैली से आहत होकर जन सरोकार के मुद्दे पर सरकार को कटघरे में खड़ा करते दिखाया दे रहे हैं जबकि वे एकला चलो की राह के लिए नए विकल्प पर अड़े हैं लेकिन विपक्ष की एकजुटता में उनकी भी बड़ी उपयोगिता हो सकती है।
उधर जाति, बिरादरी और धर्म के आधार पर निर्मित राजनीतिक दलों की विपक्षी एकता और भागीदारी में अल्पसंख्यक समाज अपने को ठगा महसूस कर रहा है।
ये समूह भी अपने राजनीतिक दलों को भी विपक्षी खेमे में सम्मिलित कर अपनी उचित भागीदारी की मांग कर रहा है। बिहार में अल्पसंख्यक समाज के नाम से जुड़े दलों में एम आई एम, जनता दल राष्ट्रवादी, भारतीय इंसान पार्टी, पीस पार्टी, आई एन एल शामिल हैं जो लगातार वर्तमान सरकार की जन विरोधी नीतियों की कटु आलोचना करते दिखाई देते हैं।
इनमें एम आई एम की स्थिति बेहतर है लेकिन सत्ता (बीजेपी) का भय दिखाकर अल्पसंख्यक समाज का थोक में वोट पाती रहीं पार्टियां धर्म का सहारा लेकर इनको भागीदारी देने के पक्ष में बिल्कुल नहीं है जिससे तंग आकर इस बार अलग-थलग पड़ा अल्पसंख्यक वर्ग का बड़ा हिस्सा विपक्षी एकता की गुहार लगाने वाले दलों से नाराज़ बताया जा रहा है।
इसके साथ ही समाजवादी-अंबेडकरवादी विचारधारा के प्रचारक और समर्थक भी वैकल्पिक व्यवस्था परिवर्तन की मंशा से सत्ता विरोधी खेमे में ही हैं।
कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी अपनी बिरादरी और खासकर युवा पीढ़ी में अच्छी पैठ है और वे राजनीति का शिकार होकर या तो जेल में बंद हैं या फिर टकटकी लगाए विपक्षी एकता और वैकल्पिक व्यवस्था की राह देख रहे हैं। इतना ही नहीं, देश और प्रदेश के बड़े सियासी योद्धाओं के नाम पर बने राजनीतिक दल भी विपक्ष के हिस्से हैं जो जेपी, लोहिया, चन्द्रशेखर, चौधरी चरण सिंह, अम्बेडकर, कर्पूरी, जार्ज फर्नांडिस, लोक बंधु राज नारायण, राम कृष्ण हेगड़े और देवगौड़ा के नाम को अपने दल का संस्थापक बताते हैं।
बसपा की भी अपनी हैसियत है। लगभग सभी क्षेत्रों में बसपा का असर है और लगातार सत्ता के विरूद्ध अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रही है बसपा भी। साथ ही भीम आर्मी जैसे संगठन भी तेज़ी से बिहार में आगे बढकर सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त कर रहे हैं।
ऐसे में सत्ता की नीतियों, कार्यशैली, विफलताओं, जन सरोकार की अनदेखी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पर मुखर रूप से कम या ज्यादा विरोध करने वाले सभी लोगों, समूहों, पार्टियों और संगठनों को सामूहिक रूप से विपक्ष कहा जाएगा जो लगातार सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं चाहे उनका असर पड़े या न पड़े।
सत्ता के विरूद्ध उठने वाली इन सभी आवाज़ों को मिलकर सत्ता परिवर्तन करने और नए संकल्प के साथ नए विकल्प प्रस्तुत करने हेतु सम्पूर्ण विपक्ष का स्वरूप दिया जाना बेहद जरूरी है।
बिहार के कई लेखक, साहित्यकार, किसान नेता तथा सामाजिक चेतना के लिए ज़मीन पर काम करने वाले ज़िम्मेदार लोगों का प्रवासी मज़दूरों की स्थिति को देखने के बाद ये मानना है कि उक्त सभी विरोधी स्वरों से संवाद कर और सबकी मंशा से सहयोग, सहमति और समन्वय के आधार पर सम्पूर्ण विपक्ष का निर्माण करने की पहल किए बिना साधन-संसाधन से लैस सत्ता की जन विरोधी नीतियों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता है।
अभी वर्तमान स्थिति ये है कि जातीय समीकरण के जोड़-तोड़ और गुणा-भाग के आधार पर दो या तीन दलों का गठजोड़ करके सम्पूर्ण विपक्ष की सोच को नुक़सान पहुंचाया जा रहा है और सत्ता के विरूद्ध फूंके गए सभी बिगुलों को खंडित कर तीसरे विकल्प जैसा संकट खड़ा किया जा रहा है जिससे सत्ता पक्ष को पुन:जीवन दान मिल जायेगा जिसके कारण सभी विपक्षी दलों की विफलता और नेक नियति पर प्रश्न चिन्ह लगना तय है। जिससे आगामी विधान सभा चुनाव में नुक़सान तय है।
ऐसी स्थिति में जेपी के रोल को निभाने हेतु किसी बुज़ुर्ग नेता की जरूरत है जो सत्ता की चाहत से मुक्त होकर सम्पूर्ण विपक्ष का निर्माण कर सके जिसमें सबको उचित अवसर और भागीदारी देकर वैकल्पिक व्यवस्था की रूप रेखा तय हो।
सर्व समाज की अपेक्षाओं और बिहार के चौमुखी विकास के मॉडल के साथ सम्पूर्ण विपक्ष शंखनाद करे तो सत्ता परिवर्तन निश्चित है वरना सम्पूर्ण विपक्ष को गोल बन्द नहीं करके जातीय समीकरण के आधार पर अपनी-अपनी डफ़ली अपना-अपना राग की राह सत्ता पक्ष को वाक ओवर देने जैसा होगा।
सम्पूर्ण विपक्ष के संदर्भ में ये बताना ज़रूरी है कि सभी दलों को चुनावी भागीदारी दिए बिना भी सबको उचित अवसर दिया जा सकता है। अर्थात जो दल, समूह या संगठन चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हैं। मतलब जिनके पास धन और कार्यकर्ताओं का अभाव है उन सभी को सरकारी निगमों में सहभागी बनाकर भी सबको उचित अवसर की बात को पूर्ण किया जा सकता है। शर्त है कि सबकी नियत सत्ता परिवर्तन कर जनहितकारी विकल्प सम्पूर्ण विपक्ष की एकता के साथ प्रस्तुत करने की हो।
संपादन: परवेज़ अनवर
न्यूज़ डायरेक्टर और एडिटर- इन-चीफ, आई बी टी एन मीडिया नेटवर्क ग्रुप, नई दिल्ली
लेखक: सादात अनवर
चन्द्रशेखर स्कूल आफ पॉलिटिक्स, नई दिल्ली
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