तुर्की में अर्दोआन की जीत भारत के लिए क्या मायने रखती है?

 29 May 2023 ( परवेज़ अनवर, एमडी & सीईओ, आईबीटीएन ग्रुप )
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तुर्की में रेचेप तैय्यप अर्दोआन फिर से राष्ट्रपति चुनाव जीत गए हैं। अर्दोआन पिछले दो दशक से तुर्की की कमान संभाल रहे हैं और दो दशक सत्ता में रहने के बाद भी चुनाव जीतने में कामयाब रहे।

अर्दोआन की जीत भारत के लिए क्या मायने रखती है? भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अर्दोआन को जीत की बधाई दे दी है। मोदी ने बधाई देते हुए उम्मीद जताई है कि आने वाले वक़्त में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध अच्छे होंगे और वैश्विक मुद्दे पर सहयोग बढ़ेगा।

मोदी ने भले बधाई दे दी है लेकिन उन्हें पता है कि अर्दोआन के सत्ता में आने के बाद भारत से रिश्ते सहज नहीं रहे हैं। पिछले नौ सालों में मोदी ने मध्य-पूर्व के कई देशों का दौरा किया लेकिन तुर्की नहीं गए।

2019 में मोदी तुर्की का दौरा करने वाले थे लेकिन ऐन मौक़े पर दौरा रद्द हो गया था। पाँच अगस्त 2019 को कश्मीर का विशेष दर्जा भारत ने ख़त्म कर दिया था और तुर्की ने इसका खुलकर विरोध किया था। अर्दोआन ने इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में भी उठाया था।

कश्मीर पर अर्दोआन की लाइन पाकिस्तान के पक्ष में रही है। भारत के लिए हमेशा से यह असहज करने वाला रहा है। तुर्की इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी में भी कश्मीर को लेकर हमलावर रहा है।

भारत तुर्की की इन आपत्तियों के जवाब में कहता रहा है कि कश्मीर उसका आंतरिक मामला है और तुर्की की टिप्पणी भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है।

भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने भी ट्वीट कर इस बात पर चिंता जताई है कि अर्दोआन की जीत भारत के लिए किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है।

कंवल सिब्बल ने अपने ट्वीट में लिखा है, ''तुर्की में अर्दोआन की जीत भारत के लिए बहुत सहज स्थिति नहीं है। तुर्की कश्मीर पर इस्लामिक लाइन पर समर्थन पाकिस्तान को देगा। ओआईसी में भी कश्मीर पर सक्रिय रहेगा। पाकिस्तान के साथ तुर्की की जुगलबंदी चिंताजनक है। ऑटोमन साम्राज्य वाला अर्दोआन का लक्ष्य भी विनाशकारी है। अर्दोआन के नेतृत्व में तुर्की का ब्रिक्स में आना किसी भी मायने में ठीक नहीं है। रूस के साथ भी अर्दोआन की दोस्ती बहुत अच्छी है।''

तुर्की का पाकिस्तान परस्त रुख़ रहा है। कहा जाता है कि इसकी शुरुआत 1950 के शुरुआती दशक या फिर शीत युद्ध के दौर में होती है।

इसी दौर में भारत-पाकिस्तान के बीच दो जंग भी हुई थी। तुर्की और भारत के बीच राजनयिक संबंध 1948 में स्थापित हुआ था। तब भारत के आज़ाद हुए मुश्किल से एक साल ही हुआ था।

इन दशकों में भारत और तुर्की के बीच क़रीबी साझेदारी विकसित नहीं हो पाई। कहा जाता है कि तुर्की और भारत के बीच तनाव दो वजहों से रहा है। पहला कश्मीर के मामले में तुर्की का पाकिस्तान परस्त रुख़ और दूसरा शीत युद्ध में तुर्की अमेरिकी खेमे में था जबकि भारत गुटनिरपेक्षता की वकालत कर रहा था।

नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन यानी नेटो दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1949 में बना था। तुर्की इसका सदस्य था। नेटो को सोवियत यूनियन विरोधी संगठन के रूप में देखा जाता था।

इसके अलावा 1955 में तुर्की, इराक़, ब्रिटेन, पाकिस्तान और ईरान ने मिलकर 'बग़दाद पैक्ट' किया था। बग़दाद पैक्ट को तब डिफ़ेंसिव ऑर्गेनाइज़ेशन कहा गया था।

इसमें पाँचों देशों ने अपनी साझी राजनीति, सेना और आर्थिक मक़सद हासिल करने की बात कही थी. यह नेटो की तर्ज़ पर ही था। 1959 में बग़दाद पैक्ट से इराक़ बाहर हो गया था। इराक़ के बाहर होने के बाद इसका नाम सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन कर दिया गया था। बग़दाद पैक्ट को भी सोवियत यूनियन के ख़िलाफ़ देखा गया। दूसरी तरफ़ भारत गुटनिरपेक्षता की बात करते हुए भी सोवियत यूनियन के क़रीब लगता था।

जब शीत युद्ध कमज़ोर पड़ने लगा था तब तुर्की के 'पश्चिम परस्त' और 'उदार' राष्ट्रपति माने जाने वाले तुरगुत ओज़ाल ने भारत से संबंध पटरी पर लाने की कोशिश की थी।

1986 में ओज़ाल ने भारत का दौरा किया था। इस दौरे में ओज़ाल ने दोनों देशों के दूतावासों में सेना के प्रतिनिधियों के ऑफिस बनाने का प्रस्ताव रखा था। इसके बाद 1988 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तुर्की का दौरा किया था। राजीव गांधी के दौरे के बाद दोनों देशों के रिश्ते कई मोर्चे पर सुधरे थे।

लेकिन इसके बावजूद कश्मीर के मामले में तुर्की का रुख़ पाकिस्तान के पक्ष में ही रहा इसलिए रिश्ते में नज़दीकी नहीं आई।

 

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