इंडियन नेशनल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ अभिजीत बनर्जी के बीच कोरोना महामारी, इसके कारण पैदा होने वाली भविष्य की आर्थिक चुनौतियों और इन आर्थिक चुनौतियों से कैसे निपटा जाये पर महत्वपूर्ण संवाद।
राहुल गांधी: सबसे पहले तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अपना समय देने के लिए। आप बहुत बिजी रहते हैं।
डॉ बनर्जी: नहीं...नहीं...आपसे ज्यादा नहीं।
राहुल गांधी: यह थोड़ा सपने जैसा नहीं लगता कि सबकुछ बंद है।
डॉ बनर्जी: हां ऐसा ही है, सपने जैसा, लेकिन भयावह, दरअसल यह ऐसा है कि किसी को कुछ पता नहीं है कि आगे क्या होने वाला है?
राहुल गांधी: आपके तो बच्चे हैं, तो उन्हें इस सबको देखकर कैसा लग रहा है?
डॉ बनर्जी: मेरी बेटी थोड़ा परेशान है। वह अपने दोस्तों के साथ जाना चाहती है। मेरा बेटा छोटा है और वह तो खुश है कि हर वक्त उसके मां-बाप साथ में हैं। उसके लिए तो यह कुछ भी गलत नहीं है।
राहुल गांधी: लेकिन वहां भी पूरा ही लॉकडाउन है। तो वे बाहर तो जा नहीं सकते?
डॉ बनर्जी: नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है, हम बाहर जा सकते हैं। टहलने पर कोई बाबंदी नहीं है, साइक्लिंग और ड्राइव करने पर भी रोक नहीं है। बस इतना है कि साथ-साथ नहीं जा सकते, शायद इस पर पाबंदी है।
राहुल गांधी: इससे पहले कि मैं शुरु करूं, मेरी एक उत्सुकता है। आपको नोबेल पुरस्कार मिला। क्या आपको उम्मीद थी? या फिर यह एकदम अचानक हो गया?
डॉ बनर्जी: एकदम अचानक था यह। मुझे लगता है कि यह ऐसी चीज है कि जिसके बारे में सोचते रहो तो आप इसे बहुत ज्यादा मन में लेकर बैठ जाते हो। और मैं चीजों को मन में लेकर बैठने वाला व्यक्ति नहीं हूं, खासतौर से उन चीजों के लिए जिनका मेरे जीवन पर कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ता है। मुझे किसी चीज की उम्मीद नहीं रहती है ... यह एकदम से सरप्राइज था मेरे लिए।
राहुल गांधी: भारत के लिए यह एक बड़ी बात थी, आपने हमें गौरवान्वित किया है।
डॉ बनर्जी: थैंक यू ... हां यह बड़ी बात है। मैं यह नहीं कह रहा कि यह बड़ी बात नहीं है, मेरा मानना है कि आप इसे मन में लेकर बैठ जाते हो, लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई प्रक्रिया है जो हर किसी को समझ आए। तो, हो जाती हैं चीजें।
राहुल गांधी: तो जो कुछ अहम बातें जिन पर मैं आपके साथ चर्चा करना चाहता हूं उनमें से एक है कोविड और लॉकडाउन का असर और इससे गरीब लोगों की आर्थिक तबाही। हम इसे कैसे देखें? भारत में कुछ समय से एक पॉलिसी फ्रेमवर्क है, खासतौर से जब हम यूपीए में थे तो हम गरीब लोगों को एक मौका देते थे, मसलन मनरेगा, भोजन का अधिकार आदि ... और अब ये बहुत सारा काम जो हुआ था, उसे दरकिनार किया जा रहा है क्योंकि महामारी बीच में आ गई है और लाखों-लाखों लोग गरीबी में ढहते जा रहे हैं। यह बहुत बड़ी बात है ... इसके बारे में क्या किया जाए?
डॉ बनर्जी: मेरी नजर में यह दो अलग बातें हैं। एक तरह से मैं सोचता हूं कि असली समस्या जो तुरंत है वह है कि यूपीए ने जो अच्छी नीतियां बनाई थीं, वह इस समय नाकाफी हैं। सरकार ने एक तरह से उन्हें अपनाया है। ऐसा नहीं है कि इस पर कोई भेदभाव वाली असहमति थी। यह एकदम स्पष्ट है कि जो कुछ भी हो सकता था उसके लिए यूपीए की नीतियां ही काम आतीं।
मुश्किल काम यह है कि आखिर उन लोगों के लिए क्या किया जाए जो इन नीतियों या योजनाओं का हिस्सा नहीं है। और ऐसे बहुत से लोग हैं। खासतौर से प्रवासी मजदूर। यूपीए शासन के आखिरी साल में जो योजना लाई गई थी कि आधार को देश भर में लागू किया जाए और इसका इस्तेमाल पीडीएस और दूसरी योजनाओं के लिए किया जाए। आधार से जुड़े लाभ आपको मिलेंगे, आप कहीं भी हों। इस योजना को इस समय लागू करने की सबसे बड़ी जरूरत है। अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो इससे बहुत सारे लोगों को मुसीबत से बचाया जा सकता था। अगर ऐसा होता तो लोग स्थानीय राशन की दुकान पर जाते और अपना आधार दिखाकर कहते कि मैं पीडीएस का लाभार्थीं हूं। मसलन भले ही मैं मालदा या दरभंगा या कहीं का भी रहने वाला हूं, लेकिन मैं मुंबई में इसका लाभ ले सकता हूं। भले ही मेरा परिवार मालदा या दरभंगा में रहता हो। लेकिन यहां मेरा दावा है। और ऐसा नहीं हुआ तो इसका अर्थ यही है कि बहुत से लोगों के लिए कोई सिस्टम ही नहीं है। वे मनरेगा के भी पात्र नहीं रहे क्योंकि मुंबई में तो मनरेगा है नहीं, और पीडीएस का भी हिस्सा नहीं बन पाए क्योंकि वे स्थानीय निवासी नहीं हैं।
दरअसल समस्या यह है कि कल्याणकारी योजनाओं का ढांचा बनाते वक्त सोच यह थी कि अगर कोई अपने मूल स्थान पर नहीं है तो मान लिया गया कि वह काम कर रहा है और उसे आमदनी हो रही है। और इसी कारण यह सिस्टम धराशायी हो गया।
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